आख़िर तक – इन शॉर्ट्स
- 1997 में, असम के मुख्यमंत्री ने टाटा टी पर उग्रवादी संगठन ULFA से संबंध होने का आरोप लगाया।
- टाटा ग्रुप ने इन आरोपों को नकारा और रतन टाटा ने विवाद का समाधान करने के लिए दिल्ली का दौरा किया।
- “टाटा टेप्स” लीक होने से विवाद और बढ़ गया, लेकिन अंततः टाटा ग्रुप बिना किसी नुकसान के बाहर निकला।
आख़िर तक – इन डिटेल्स
1997 का साल असम के लिए उथल-पुथल से भरा हुआ था। उग्रवादी संगठन ULFA ने राज्य में हिंसा और आतंक का माहौल बना रखा था। असम के मुख्यमंत्री प्रफुल्ल महंत ने टाटा ग्रुप, विशेषकर टाटा टी, पर ULFA को समर्थन देने का आरोप लगाया। उनका मानना था कि टाटा टी ने ULFA के उग्रवादियों को वित्तीय सहायता दी थी, जिससे राज्य में हिंसा को बढ़ावा मिला। इसके जवाब में, टाटा ग्रुप ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया और रतन टाटा ने स्थिति को नियंत्रण में लेने के लिए कदम उठाए।
टाटा टी पर लगे आरोप
ULFA ने असम के कई उद्योगपतियों और व्यापारियों से फिरौती की मांग की थी। टाटा टी, जो राज्य में सबसे बड़ी चाय कंपनी थी, पर आरोप लगाया गया कि उसने ULFA की आर्थिक सहायता की है। असम सरकार ने टाटा ग्रुप के अधिकारियों से पूछताछ शुरू कर दी और मामले की जांच तेज कर दी।
टाटा टेप्स विवाद
इसी बीच, “टाटा टेप्स” नामक एक विवाद और सामने आया। इन टेप्स में टाटा ग्रुप के उच्च अधिकारियों की बातचीत का लीक होना शामिल था, जिसमें दावा किया गया कि वे असम सरकार से अपने मतभेद सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। हालांकि, टाटा ने इस मामले में किसी भी गड़बड़ी को नकार दिया और कहा कि उनका मकसद केवल असम के लोगों की सामाजिक भलाई थी।
रतन टाटा का प्रभाव
रतन टाटा ने इस संकट को सुलझाने के लिए कई महत्वपूर्ण बैठकें कीं। उन्होंने असम के मुख्यमंत्री महंत से मुलाकात की और स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश की। टाटा ग्रुप ने यह स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य सिर्फ राज्य में शांति और सामाजिक कल्याण के लिए काम करना था।
अंततः, इस विवाद के बाद भी टाटा ग्रुप की छवि बरकरार रही और उन्होंने असम में अपने सामाजिक कल्याण कार्यों को जारी रखा।
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